विश्वकर्मा जयंती पर शहर की औद्योगिक जरूरतों और समस्याओं पर नजर डालें तो मिलेगा समस्याओं का अंबार, लेकिन कानपुर इन दुश्वारियों में फिर भी चमक रहा है। चिमनियों का शहर कानपुर आज नए कलेवर में खड़ा है। इस बार शहर के औद्योगिक शान की कमान संभाली है रेडीमेड गारमेंट्स, होजरी, सैडलरी, प्लास्टिक, खाद्य तेल, इंजीनियरिंग, केमिकल, बिस्कुट, डिटर्जेन्ट,साबुन, इस्पात,डेयरी, फार्मा, गरम मसाले, पान मसाला और चाय जैसे दर्जनों हाथों ने, जो शहर की चमक को हर दिन गुजरने के साथ और भी ज्यादा चमकदार बना रहे हैं। दुख की बात ये है कि अपने दम पर औद्योगिक पताका फहरा रहे कानपुर के विकास में गंभीरता से प्रयास नहीं हुए। सबसे ज्यादा राजस्व और सबसे ज्यादा रोजगार देने वाले शहर में आज भी एक अदद एयरपोर्ट नहीं है। सड़कें खस्ताहाल हैं, बुनियादी ढांचा न के बराबर है। एनजीटी के सख्त आदेशों की वजह से टेनरियां बंद हो रही हैं तो दूसरी तरफ बची-खुची टेक्सटाइल व होजरी इकाइयों की कमर टूट गई है। अगर जल्द इन मूलभूत समस्याओं का समाधान न हुआ तो विश्वकर्मा हमारे शहर से रूठ जाएंगे।

Cawnpore Woolen mills, kanpur
woolen mill in kanpur, INDIA, constructed in year 1869 in bricks and cast iron.
नई स्रहस्नब्दि का नया दशक कानपुर के उद्योगों के लिए रोशनी की नई किरण लाया तो दूसरा दशक उन किरणों की चमक बिखेरने के लिए बेताब दिख रहा है। पहले दशक में मिलों के बंद होने और खुलने की लुकाछिपी का पटाक्षेप हुआ तो दूसरी ओर उद्यमियों की नई पीढ़ी फलक पर आई। विश्वकर्मा जयंती पर शहर की औद्योगिक जरूरतों और समस्याओं पर नजर डालें तो मिलेगा समस्याओं का अंबार, लेकिन कानपुर इन दुश्वारियों में फिर भी चमक रहा है। इस दशक की शुरुआत से पहले ही कानपुर में जेके, जयपुरिया, समेत तमाम बड़े घरानों के कारोबार पर ग्रहण लग गया था। मिलें खंडहर हो गईं थीं और मजदूर क्रांति की जगह जरायम ने जन्म ले लिया था। दंगें-फसाद ने कोढ़ में खाज का काम किया। नए कारोबारी यहां आने से कतराने लगे। बेरोजगारी पांव पसार चुकी थी। निराशा के इस माहौल से निपटने का साहस जुटाया छोटे उद्यमियों ने। दादानगर, पनकी, सरेसबाग, कर्नलगंज, रनिया से लेकर कलक्टरंगज और नयागंज की गलियों में खामोशी से कारोबार चलता रहा। छोटे उद्योगों के युग का अभ्युदय हुआ। इस दशक में उनकी गुणवत्ता व मेहनत के दम पर शहर का नाम देशभर में एक बार फिर सुर्खियों में आ गया।
कभी मैनचेस्टर के रूप में जाने जाना कानपुर अब संगठित उद्योंगों का कब्रगाह हो गया है। शहर में कहीं भी चिमनियों से न तो धुंआ निकलता है और न ही सायरन बजता है।90 दशक तक सायरन बजता था तो शहर की सड़कों में श्रमिकों की भीड़ ही दिखती थी। किसी तरह टेनरी और असंगठित उद्योग लाज बचा रहे हैं लेकिन बिजली संकट के चलते उद्यमियों का शहर से मोहभंग होता जा रहा है। असंगठित उद्योंगों की विस्तार इकाइयां दूसरे प्रदेशों में खोली जा रही हैं। कपड़ा और जूट उद्योग बंद हो चुका है। हजारों बेरोजगार श्रमिक ठेलियां लगाकर सालों से गुजर-बसर कर रहे हैं। कालपी रोड में ऐसे श्रमिकों के ठेले मिल जाएंगे।
शहर में संगठित उद्योगों के ढहने की शुरुआत वास्तव में 1989 में पांडेय अवार्ड के आने के बाद हुई। इसके विरोध में श्रमिकों ने 108 घंटे जूही यार्ड पर दिल्ली-हावड़ा ट्रैक जाम रखा और वहां से तभी हटे जब एवार्ड वापस होगा। अवार्ड को मान लिया गया होता तो कपड़ा मिलें जिंदा होने लगती। घाटे पर जा रही मिलों को बचाने के लिए अवार्ड में श्रमिकों को वेतन वृद्धि के साथ कार्यभार बढ़ाने की सिफारिश की गई थी लेकिन श्रमिकों ने नहीं माना तो फिर कपड़ा मिलों में ताला लगने लगा।
सबसे पहले निजी क्षेत्र की जेके कॉटन मिल बंद हुई तो चार हजार श्रमिक सड़क पर आ गए। फिर बंदी का यह सिलसिला एनटीसी मिलों में चला और देखते ही देखते सारी पांचों मिलों में ताला लग गया। अब सिर्फ इन मिलों का के प्रवेश द्वार बचे हैं। बाकी पूरी मिलें खण्डहर के रूप में हो गई हैं। यहीं हाल बीआईसी मिलों का हुआ।
कपड़ा मिलों का यह हाल हुआ तो फिर शहर से जूट उद्योग भी बंद होने लगा। पहले कानपुर जूट मिल बंद हुई तो फिर जेके जूट मिल में ताला लग गया। छुटकारा पाना को जेके घराने को जूट मिल को बेचना तक पड़ा। सारडा घराने के पास गई यह मिल कभी चलती है तो कभी तालाबंदी की चंगुल में फंस जाती है।
One thought on “विश्वकर्मा जयंती पर शहर की औद्योगिक जरूरतों और समस्याओं पर नजर”